भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ब्रह्मांड / वाज़दा ख़ान

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:58, 21 मार्च 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=वाज़दा ख़ान |संग्रह=जिस तरह घुलती है काया / वाज़…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बन्द है मुट्ठी
मगर मेरी है, जब चाहे
खोल सकती हूँ

हथेलियों की लकीरों को
गिन सकती हूँ
इसी तरह उगते हैं सपने भी
ज़मीन पर, बशर्ते
तुममें माद्दा हो टिकने का
पाँव धँसे हों गहराई तक
ज़मीन के भीतर

पुरातन से पुरातन होते जाएँ
सपने लेकिन पलते रहें
अनवरत स्मृतियों के कैनवास पर
इन्द्रधनुष रंगों की जिजीविषा में
गुंजित होता रहे मानस
गूँजता रहे हृदय में
अनहद नाद

फिर एक ज़मीन के साथ
जब तब होता रहे उरेहन
स्वप्नों पर सवार एक ब्रह्माण्ड का ।