भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
समकालीन / शलभ श्रीराम सिंह
Kavita Kosh से
Himanshu (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 06:27, 28 जून 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शलभ श्रीराम सिंह |संग्रह=कल सुबह होने के पहले / श…)
ये किसी मीनार-शीर्ष की भाँति
अपने ही होने के संदर्भ पर
टूटकर गिर जाना चाहते हैं ।
पीली घास की
चोटियाँ पकड़कर घसीटती हवाओं को
रोकने के लिए
इन्हें टूटकर गिरना ही होगा !
क्योंकि :
छिद्रों को समर्पित है इनका अन्त !
ये अपनी पूर्व तरलता को
पुनः प्राप्त होना चाहते हैं !
ताकि :
इन्हें आवश्यकताओं के अनुरूप
स्वीकारा जा सके !
इन्हें, इनके ही नाम से पुकारा जा सके !
ये, एक-अनेक के बीच रहना चाहते हैं !
धरती-आकाश में एक साथ बहना चाहते हैं !
इन्हें टूटकर गिरना ही होगा !
(१९६५)