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रोशनी झरी / रमेश रंजक

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जाने क्या बात कही
संदली हवा ने
माथा-सा सहलाया दर्द का दवा ने ।

परदे-सी डाल हिली दुहरी-तिहरी
छन-छन कर रंगों की
रोशनी झरी
कंधों तक डूब गए चम्पई सिवाने ।

धीमे से अँगड़ाई पर्त सतह की
स्वप्निल मधु भरी हँसी
बहकी-बहकी
सिरहाने बैठ गई पाती पढ़वाने ।