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गोप गीत / अज्ञेय

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नीला नभ, छितराये बादल, दूर कहीं निर्झर का मर्मर
चीड़ों की ऊध्र्वंग भुजाएँ भटका-सा पड़कुलिया का स्वर,
संगी एक पार्वती बाला, आगे पर्वत की पगडंडी :
इस अबाध में मैं होऊँ बस बढ़ते ही जाने का बन्दी!

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