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फिरते थे दश्त दश्त दिवाने किधर गए / शाह मुबारक 'आबरू'

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फिरते थे दश्त दश्त दिवाने किधर गए
वे आशिक़ी के हाए ज़माने किधर गए.

मिज़ग़ाँ तो तेज़-तर हैं व लेकिन जिगर कहाँ
तरकश तो सब भरे हैं निशाने किधर गए.

कहते थे हम कूँ अब न मिलेंगे किसी के साथ
आशिक़ के दिल कूँ फिर के सताने किधर गए.

जाते रहे पे नाम बताया न कुछ मुझे
पूछूँ मैं किस तरह कि फ़ुलाने किधर गए.

मैं गुम हुआ जो इश्क़ की रह में तो क्या अजब
मजनून ओ कोह-कन से न जाने किधर गए.

प्यारे तुम्हारे प्यार कूँ किस की नज़र लगी
अँखियों सीं वे अँखियों के मिलाने किधर गए.

अब रू-ब-रू है यार नहीं बोलता सो क्यूँ
क़िस्से वो 'आबरू' के बनाने किधर गए.