तुम प्रणम्य / प्रतिभा सक्सेना
हे, मातृ-रूप हे विश्व-प्राण की प्रवाहिका हे नियामिका,
वह परम-भाव ही इस भूतल पर छाया बन करुणा-ममता
केवल अनुभव-गम्या, रम्या धारणा-जगतके आरपार
तुम मूल सृष्टि नित पुष्टि हेतु सरसा जीवन की अमियधार
इस अखिल सृष्टि के नारि-भाव उस महाभाव के अंश रूप
उस परम रूप की छलक व्यक्त नारी-मन में जो रम्य रूप
वात्सल्य पुत्रि का वृद्ध पिता के हेतु उमड़ता आता जैसे
भगिनी का नेह अपार सहोदर बंधु सदा पाता जैसे
गृहिणी का हृदय थके पंथी के हेतु उमड़ता अनायास,
भूखे बालक को करुणाकुल हो वितरित करता तृप्ति-ग्रास
जो स्वयं काल से लड़ जाती, भार्या बन सत्यवान के हित
अगणित परिभाषाहीन भाव नारी अंतर में चिर संचित
श्री-मयी ज्योति सौन्दर्य सुखों रागों -भोगों से जग सँवार,
हो बिंब और-प्रतिबिंब असंख्यक रूप- भाव ऊर्जा अपार
अपनी ही द्युति से दीप्तिमयी तुमसे ही जीवन बना धन्य
सब रूपों में तुम ही अनन्य तुम धन्य चिन्मयी तुम प्रणम्य!