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अभागिन प्रियतमा / रविकान्त
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वह दुःख की नदी थी
थी वह एक अभागिन प्रियतमा
मन ही मन गुनती थी प्रिय का हार
नजर को उमेठे
करती रही प्रतीक्षा
चलता-फिरता जीवन भरा
जलता हुआ चलता रहा,
वह सपना था
धधकाता रहा आग
वह उमठती रही अपने में
फुँफकारते हुए जीती रही निर्द्वंद्व!
हार नहीं पाई
लाज ने उसे हरा दिया
तार-तार होते हुए
हँसती रही, वह
प्रेम की बलाय नहीं पाल सकी
प्रेम के सदमे का शिकार रही वह