भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
घर-7 / अरुण देव
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:42, 10 जुलाई 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अरुण देव |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poem> इन्द्...' के साथ नया पन्ना बनाया)
इन्द्रधनुष से एक-एक कर उतर आए सातों रंग
जब बन गया घर
मज़दूरों ने कहा चलते हैं अपने घर कि घर कभी हमारा नहीं रहता
राज-मिस्त्री की हाथ की लकीरों में बस जाता है पुराना घर
जब वह फिर शुरू करता है कोई नया घर ।