भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

झूठ / अनिता भारती

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:37, 14 जुलाई 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अनिता भारती |संग्रह=एक क़दम मेरा ...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बंद करो
ये ढोल पीटना
कि तुमने बचपन में
बहुत संघर्ष किया
और अब
तुम्हारे आराम करने का समय है

जो तुम सुनाते हो धिक्कारते हो
उन मजलूमों को
कि तुम उनकी तरक्की के लिए
सोये ज़मीन पर
उन्हें ऊंचा उठाने के लिए
तुम रहे एक कपड़े में
उन्हें बराबर लाने के लिए
तुमने छोड़ दिए अपने बच्चे

क्या यह सब
अपने स्वार्थ के खोल में घुसने के लिए
तुम्हारे बहाने नहीं?
सोचो,
क्या तुम सच में खड़े थे
उन लोगों के हक में?
जो पिट रहे थे डूब रहे थे मर रहे थे
या फिर उनके डूबने पिटने
और मरने की शर्त पर
तुम्हारी महत्वकांक्षा के लालच का झंडा
लहरा रहा था
और उससे तुम
जो कमाना चाहते थे
नाम पैसा शोहरत
वह सब पा लेने के बाद कहते हो
कि हम काम कर करके
थक चुके हैं
अब हम बुझ चुके हैं
हमारा आँदोलन से मन उठ चुका है
और सब कुछ करने के बाद
यहाँ कुछ बदलने वाला नहीं है
कहीं नही आने वाली है
लाल-नीली क्रांति

यह कहकर तुम आँदोलन से
सदा के लिए हट जाना चाहते हो
ताकि तुम्हारी बेईमानी
अपराधबोध
और झूठ तड़पकर
बाहर ना कूद पड़े

पर सुनो,
सारी दुनिया के दलित शोषित मजबूर
जानते है कि
तुम थके बिल्कुल नहीं हो
और बुझे भी नहीं हो
पर हाँ, यह संभव जरूर है
कि अब तुम हमारे सपनों की
कीमत लगाकर
हमारे बलबूते इकट्ठी की गयी
कमाई पर
जरा अच्छे से पसर कर
आराम कर पाओगे
अपने मन में
छद्म शान्ति का भ्रम पाले

कि हमने
खूब मेहनत की
कीचड़ और दलदल में पड़े
समाज के लिए
उसे खूब उठाया
पर कुछ भी नही बदला
और अब थककर हमारे
आराम करने का वक्त है
दलित शोषित मजबूरों
जाओ! हमें चैन से सोने दो