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अवशेष / शर्मिष्ठा पाण्डेय
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ज़माने से तलाश थी
आँखों की बावड़ी में
इकठ्ठा होने वाले पानी के स्त्रोत की
बावड़ी के रास्ते उतरीगहरे बहुत गहरे
पहुँच गयी भावनाओं की ज़मीन पर
देखावहीँ से रिसता था बूँद-बूँद पानी
साथ में बहा लाता
ढेरों नाकाम हसरतें,इच्छाएं,तमन्नाएँ
फिर सब संचित होता रहता इन बावड़ियों में
पता है
बावड़ी के किनारे कच्चे हैं,
काले अंजन से लीपे जाते रहे हैं
और,
रिसते-रिसते पानी जा पहुँचता भीतर-भीतर
छुपी हुई,दिल की गुप्त दीवारों तक
सीलनबहुत सीलन उतर चुकी इन दीवारों पर
उखड़ने लगे हैं संवेदनाओं के पलस्तर
गिर सकती है कभी भी देह की ईमारत
फिर ढूंढें जायेंगे अवशेष
बनेगा इतिहास
जिंदा होंगी नयी लिपियाँ
पर पढ़ी न जा सकेंगी
काश!! मरम्मत हो पाती