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नदी / पूनम तुषामड़

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मैं नदी हूँ
रोकने से कब किसी के
मैं रुकी हूँ।
बन कर निश्छल धार जल की
तरह मैं बही हूँ।

जंगल और पर्वत-शिखर को चीर कर
मैं धरा की
गर्वीली पुत्री बनी हूँ
मैं नदी हूँ।

मैं नहीं किसी देव के
केशों से निकली
मैं नहीं फूटी
किसी के तीर से।
मत बनाओ मुझे
किसी तीर्थ की देवी
कर सको शीतल करो मन
मेरे निर्मल नीर से।
मैं प्रकृति की सुता
मैं धरा की बालिका
बन कर पली हूँ

मैं किसी भी ईष्ट के
अधीन बन कर
कब रही हूँ
मैं नदी हूँ।

मैं हूँ गंगा मैं ही जमुना।
मैं सतलज मैं नर्मदा।
मैं रावि मैं ही जेहलम।
टेम्स, वोल्गा और अमेजन।

मेरे ही तट पर बसे हैं
शहर सारे।
मैं न जाति-धर्म में बंध
कर रही हूँ।
आश्रय पाते हैं
सब मेरे किनारे
मैं विषमता में
समता ही छवि हूँ।
देश और विदेश तक
फैली हुई हूँक
ब किसी के हाथ से
मैली हुई हूँ?
मैं नदी हूँ।

मैं बहा ले जाती हूँ
दुख-दर्द सारे।
मैं चली हूँ बन गति
तोड़े किनारे।
बांधने से बंधनों में
कब बंधी हूँ
तोड़ सारे बांध मैं
बाढ़ बन आगे बढ़ी हूँ
मैं नदी हूँ।

मैं हूँ यौवन
मैं ही सावन
मैं ही हूँ
हर पर्व-पावन
मैं ही ममता
मैं समर्पण
मैं तेरे कर्मों की
एकल साक्षी हूँ
मैं नदी हूँ।

मैं हूँ सुर और
मैं ही संगम
मैं हूँ जीवन
मैं समागम
मैं ही अश्रुधार बन कर
आँख से जग की बही हूँ।
मैंने सींचा मन को सबके
प्रेम-प्रवाह मैं बनी हूँ
मैं नदी हूँ।

मैं हूँ शक्ति
मैं हूँ आशा
मैं हूँ तो कैसी निराशा?
मैं तेरे खेतों में बहती
शीतजल प्रवहिनी हूँ।
बांध जब मुझ पर बने
तो दामिनी हूँ
जो करोगे प्रेम
तो मैं रागिनी हूँ
झूठी मर्यादाओं में
न मैं बंधूगी
परंपरा औ संस्कृति के नाम पर न
मैं दबूंगी।
मैं हूँ निश्छल धार,
निश्छल ही रहूँगी
मैं निरंतर स्वच्छ जल
बन कर बहूँगी
मैं नदी हूँ।

संत और सूफी बसे
मेरे किनारे
प्रेम और विद्रोह का संदेश
लेकर जो पधारे
उनके मस्तक की छुअन हूँ
उनकी वाणी की गवाह हूँ
उनके काव्य की
सजग जनवाहिनी हूँ
मैं नदी हूँ।

बादलों ने मुझ पर
निर्मल जल लुटाया।
पर कभी भूले न
अपना हक जताया।
बांधने की भूल न की
खुद कभी पर्वत-शिखर ने।
ना कभी रोके रूकी हूँ
मैं किसी गाँव शहर में।
मैं किसी नर की
बपौती भी नहीं हूँ।
मैं खुद ही स्वामिनी,
स्वतंत्रा चिर हूँ।
मैं नदी हूँ।

नित किए उपक्रम तुमने
स्वार्थ हित को साधकर
आहत प्रकृति को किया
जन पर निशाना साध कर
इन आपदाओं के हो उत्तरदायी तुम ही
मैं नहीं हूँ
मैं नदी हूँ।

मेधा के संघर्ष का आगाज़ हूँ मैं
शोषित-पीड़ित जन की आवाज हूँ मैं
समता हेत संघर्ष आहलाद हूँ मैं
कब किसी शासक के आगे मैं झुकी हूँ?
लेकर जन का साथ
मैं आगे बढ़ी हूँ
मैं नदी हूँ।

गर कभी रोके तुम्हारे
मैं कभी रूक जाऊंगी
तोड़ दूँगी दम वहीं
सड़-गल के ठहरा जल बनी।
सूख जाऊँगी या
फिर मिट जाऊँगी।
मैं तुम्हारे काम की
फिर क्या भला रह जाऊंगी
मेरा जीवन ही गति है
रूकना मेरा ध्येय नहीं है
मैं सागर का अंग
सागर ही से मैं मिलने चली हूँ
मैं नदी हूँ।