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जन-जन याचक / जीवकान्त

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अगिते देखल सूर्य
तरणिसँ माँगल थोड़ प्रकाश
कहलनि-“मुट्ठी बान्हि ठाढ़ रह
अपनहु करहि प्रयास’’
मुट्ठी तँ भरि गेल
खोलि कए देखी अति उत्साह
जते हजीरिया तते अन्हसरिया
दूनू धार प्रवाह
माँगल धरतीसँ हम याचक
अन्नल-फलक भंडार
गाछ फड़ल बड़
आगाँ देखी आधा खाली थार
नदी देखि कए भेल खुशी तँ
माँगल आँजुर पानि
बैसक्खाँमे बालु उड़ाबए
भादवमे नकमानि
लत्ती-लत्ती बहुत हरियरी
कोँढ़ी होइत फूल
फूल-कुंजमे समय बिताबी
तृष्णा लाल अढ़ूल
हवा उड़ाबए खढ़क खण्डकेँ
तहिना भासल जादू
बहुत डारिपर
बहुत फूलकेँ सिहरन नहि बिसराइ
कहल देशकेँ-
दैह सुरक्षा, घूमी जंगल-झाड़
घर-घुसनाकेँ नोति बजाबए
सागर आर पहाड़
रहलहुँ सभतरि निष्कण्टक भए
गड़ल ने कूशक काप
बन्न कोठलीमे चेहाइत छी
भरि घर सापे-साप
देशो माँगइ-
नित्य करी हम सभ जन बाट प्रशस्त
बहिर भेल किछु, सुनि नहि पाबी
अपन स्वार्थमे मस्त
कहियो माँगए धार-धरित्री
कहियो गगनक छोर
किछु नहि सुनलहुँ
जतबो सुनलहुँ
देल ने हृदय कठोर
श्री गणेशाय नम:
कुल देवताभ्योम नम:, ग्राम देवताभ्यो नम:,
सर्वोभ्यो देवभ्योनम:, सर्वेभ्यो ब्राह्मणेभ्यो नम:,
सर्वेभ्यो गुरुवेभ्यो नम:।
ऊँ शक्ति-ऊँ..........