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सुबह बोली / कुमार रवींद्र
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यही
ऋतु-संवाद होने की घड़ी है
सुबह बोली
उधर कोयल ने
कुहुक कर कहा -
'देखो, आम फूले '
क्या करें हम
आयने ये
कनखियों की रीत भूले
'ओस है
या मोतियों की यह लड़ी है'
सुबह बोली
मोरपंखी एक तितली
उड़ रही है
हवा महकी
देह में
इच्छाओं की जो छिपी चिनगी
वही दहकी
'जप रहा
दिन नेह की बारहखड़ी है'
सुबह बोली
इधर
चंपावासिनी पिड़की जगी
है ऋतुमती वह
'दिन वसंती'-
तार पर बैठा-हुआ
कौव्वा रहा कह
'इसे भी
मधुमास होने की पड़ी है'
सुबह बोली