भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
टहनियाँ / जयप्रकाश कर्दम
Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:15, 20 मार्च 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=जयप्रकाश कर्दम |अनुवादक= |संग्रह= }...' के साथ नया पन्ना बनाया)
काटा जाता है जब भी कोई पेड़
बेजान हो जाती हैं टहनियां बिना कटे ही
पेड़ है क्योंकि टहनियां हैं
टहनियां हैं क्योंकि पेड़ है
अर्थहीन हैं एक दूसरे के बिना
पेड़ और टहनियां ठूंठ हो जाता है पेड़
टहनियों के अभाव में
टहनियां हैं पेड़ का कुनबा
पेड़ ने देखा है
अपने कुनबे को बढते हुए
टहनियों ने देखा है पेड़ को कटते हुए
कटकर गिरने से पहले
अंतिम शंवास तक संघर्ष करते हुए
टहनियां उदास हैं कि पेड़ कट गया
पेड़ उदास है कि टहनियां कटेंगी
उन पर भी चलेगी कुल्हाड़ी
कटते रहेंगे कब तक पेड़
जरूरतों के नाम पर
सूखते रहेंगे स्रोत टहनियों के
क्यों जिंदा नहीं रह सकता पेड़
अपनी टहनियों के साथ।