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मोक्ष / मन्त्रेश्वर झा

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जीवन मे एक समय अबैत छैक
जखन पहाड़ो पर दूबि उगि
जाइत छैक
चट्टान के फाड़ि पानिक अजस्र
स्रोत बहय लगैत छैक
लगैत छैक जेना नव सृष्टिक
रचना भऽ रहल हो
ऊसर जमीन पर गहूमक
बाली नाचय लगैत छैक
धानक लाबा फूटय लगैत छैक
सभटा काँट गुलाब भऽ जाइत छैक
सभटा पात सिङरहार भऽ जाइत छैक
प्रत्येक पंछीक स्वर मे
कोयलीक कुहुकक
स्पंदन होमय लगैत छैक
मुदा आहि रे बाप।
सदा सँ अनवरत बहैत झरना
अकस्मात् सुखा किएक
जाइत छैक,
सभ दिनुका धनहर खेत
कोना समुद्र जकाँ अथाह भऽ जाइत छैक,
सभटा पंछीक स्वर कौआक
काँव-काँवक जकाँ
कटाह लागय लगैत छैक
अपन पूर्व जीवनक इतरायल
आ बहसल छन्द
कोना भऽ जाइत छैक
अकस्मात बन्द,
कोना पसरय लगैत छैक
चारू भर दुर्गन्ध,
से एभ एहिना होइत
रहैत छैक
आइयो कतहु ने कतहु
पहाड़ केँ चीड़ि कोनो झरना
फुटल हैत
गहूमक दाना इतरायल हैत
धानक खेत अपने
बोझ सँ अलसायल हैत
पंछीक कलरव कयने हैत
कतहु ककरो उल्लसित
प्रकृतिक लीला चलैत छैक एहिना
अपन व्यर्थताक अनुभव
जकरा जतेक शीघ्र भऽ जाय से नीक
जे होइत अछि सैह होइत अछि
तखन शिकाइत कथीक
तकरे प्रतीति होयब छी मोक्ष।