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मज़हब / सुलोचना वर्मा
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गर हवा का मज़हब होता
और पानी की होती जात
कहाँ पनप पाता फिर इन्सा
मौत दे जाती मुसलसल मात
जो समय का धर्म होता
किसी बिरादरी की होती बरसात
वक़्त के गलियारों में फिर
कौन बिछाता सियासती विसात
ज़िरह कर रहे कबसे मुद्दे पर
ढाक के वही तीन पात
ये खुदा की ज़मीं है लोगों
ना भूलो अपनी औकात