फासला / सुलोचना वर्मा
तुम फासलों से गुज़र रहे हो
पर तुम्हारी हर आहट
दिल के दरवाजे पर दस्तक दे जाती है
याद आ रहे हैं वो दिन जब
तुम्हारा उत्सव मेरे दरकार का मोहताज था
इन कंधो पर अक्सर मेरा सर होता था
और माथे पर तुम्हारा हाथ
आज साथ छूट गया है
और याद आ रहा है वो रिश्ता
जो शायद कभी था ही नही
तुम मेरे सामने हो, पर मेरे नही
मेरे तन्हाई की शोर मे
शामिल हो गया झींगुरों का गान
बैचैनि में करती चहलकदमी ने
मुझे लाकर खड़ा किया है
तुम्हारे आशियाने के करीब
मौक़ापरस्त खिड़की
दूरबीन में तब्दील हो गयी है
आज तुम्हारी आँखों में
किसी और की परछाई है
तुम्हारे होठों पर हँसी की चटाई
किसी और ने बिछाई है
अगर वक़्त ने करवट ना बदला होता
तो बात ही कुछ और होती
ज़िंदगी के क्षेत्रफल में
खुशियाँ सराबोर होती
फिर सोचती हूँ इस त्रिकोण से परे
तुम्हारी परिधि में मेरा अस्तित्व
शायद क्षणिक ही होता
मेरी अपरिमित आभा, कहाँ समा पाती
तुम्हारे जीवन की ज्यामिति में
बात रही तुम्हारे कंधे की
तो फिर रख लूँगी अपना सर
रुखसत करने दुनिया से
जब आओगे तुम मेरे दर