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बेदख़ल / निलय उपाध्याय

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मै एक किसान हूँ
अपनी रोजी नहीं कमा सकता इस गाँव में
मुझे देख बिसूरने लगते हैं मेरे खेत

मेरा हँसुआ
मेरी खुरपी
मेरी कुदाल और मेरी,
जरूरत नहीं रही
अंगरेज़ी जाने बगैर सम्भव नहीं होगा अब
खेत में उतरना

संसद भवन और विधान सभा में बैठकर
हँसते हैं
मुझ पर व्यंग्य कसते हैं
मेरे ही चुने हुए प्रतिनिधि

मैं जानता हूँ
बेदख़ल किए जाने के बाद
चौड़े डील और ऊँची सींग वाले हमारे बैल
सबसे पहले कसाइयों द्वारा ख़रीदे गये
कोई कसाई...
कर रहा है मेरी बेदख़ली का इंतजार

घर के छप्पर पर
मैंने तो चढ़ाई थी लौकी की लतर -
यह क्या फल रहा है?
मैने तो डाला था अदहन में चावल
यह क्या पक रहा है?
 
मैंने तो उड़ाये थे आसमान में कबूतर
ये कौन छा रहा है?

मुझे कहाँ जाना है-
किस दिशा में?

बरगद की छाँव के मेरे दिन कहाँ गये
नदी की धार के मेरे दिन कहाँ गये
माँ के आँचल-सी छाँव और दुलार के मेरे दिन कहाँ गये
सरसों के फूलों और तारों से भरा आसमान
मेरा नहीं रहा

धूप से
मेरी मुलाकात होगी धमन-भट्ठियों में
हवा से कोलतार की सड़कों पर
और मेरा गाँव?

मेरा गाँव बसेगा
दिल्ली मुम्बई जैसे महानगरों की कीचड़-पट्टी में