भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

रंगों के छींटे / नीलोत्पल

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:33, 23 दिसम्बर 2014 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैं बता नहीं पाऊंगा
हवा में लहराते उनके हाथों के अंदाज़ को
कि वे जहां और जिस दिशा में
ब्रश उठाते हैं
एक चमकदार दीवार सांसें लेने लगती है

अपने खोए सपनों के विस्तार में
एक परिंदा
आकाश में उतरता है
रोशनदान खोलने के लिए

मैं उनके उठने-बैठने को नहीं जानता
लेकिन जब वे रंग घोलते हैं
कम पड़ जाती हैं शब्दों की सीमाएं

मैं शब्दों को नहीं डूबो पाता
उनकी तरह
कि बाहर निकालने पर मौजूद हों
कुछ छींटे मेरे आसपास,
दीवारों और ज़मीन पर
जहां पर सांस लेते हुए
बता सकं अपनी उपस्थिति

अमूमन वे गहराई में नहीं जाते
लेकिन सतह पर उतना भी नहीं कि
छुए जा सकें

हम एक तरह के परदे के भीतर से
उन्हें देखते हैं
जहां रंगों के छींटे
हमारी ओर उछालकर
वे पिघला रहे हैं बर्फ़ो की सिल्लियां
उन रंगों के लिए
जो सूख चुके हैं हमारे जीवन में