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अहंकार / सुरेन्द्र झा ‘सुमन’
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कागज बाजल ‘काज जगतमे हमरहि बल चलइत अछि
जते हिसाब-किताब खबरि, सबतरि हमरे पढ़इत अछि’
सुनि हँसि मसि टिपलक, ‘जौँ हम नहि रङि सङ पूरिअ तीहर
तँ कोरा कागज ठोङा हित, कङला, तोँ, नहि मोहर’
कलम कहि उठल कलबल, ‘अलबल की बजइछ अज्ञान?
हमहि अपन बलदय दुहुकेँ कयलहुँ कत योग्य महान।’
हाथक कथा भेल, ‘रे कलम! अलम, कर बाजब बंद
हमहि तोरा गतिशील बनाओल यदपि क्षुद्र तोँ मंद’
नाथ हाथकेँ हँसल ‘प्रेरणा देलक के से जान
अपन अपन तजि अहंकार सभ मिलित यशस्वी मान।।’