करुण-रस / मुकुटधर पांडेय
बैठी एक सुन्दरी देखो, सरिता तट पर चिन्तालीन
ग्रहण-काल भय से व्याकुल अति, शरदचन्द्र जिस भाँति मलीन
बिलख बिलख कर हाय! अकेली, दुःख-क्रन्दन वह करती है
आँखो से ‘झर-झर’ मोती सम, अश्रु मालिका क्षरती है
करते ही उन अश्रु कणों के, स्पर्श न सरिता का वह स्रोत
किस प्रकार हो गया पूर्ण है, स्वर्ण सलिल से ओत प्रोत
खिले हुए सौरभ मय सुन्दर सरसिज शोभा पाते हैं
मधु-लोलुप मधुकर भी कितने मन्द-मन्द मडराते हैं
पल भर में इतना परिवर्तन, करो न पर आश्चर्य विशेष
प्रतिध्वनित वाणी से किसकी, होते हैं ये कूल-प्रदेश
सरिता-जल ही के किस-अविरत, काव्य-सुधा बहता अभिराम
विदित नवोरस की रानी है ‘करुणा’ इस रमणी का नाम
असुधा में वह सुकवि धन्य है, रहती यह जिसके अधीन
बैठी एक सुन्दरी देखो, सरिता तट पर चिन्तालीन।