भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सीढ़ियाँ / असंगघोष

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:24, 13 अक्टूबर 2015 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=असंगघोष |अनुवादक= |संग्रह=समय को इ...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

यह सीढ़ियाँ
ले जाती हैं
इंसान को जितना ऊपर
उतारती हैं
उतरी ही शिद्दत से
नीचे भी,
कभी-कभी
गिरा भी देती हैं अचानक
जब तक सम्हलता है
आदमी

तब तक
बहुत देर हो चुकी होती है
पर ऊपर जाने के बाद भी
उसे आना तो नीचे ही है
ऐसे में क्या पहाड़ के नीचे
सिर्फ ऊँट ही आते हैं?

सीढ़ियाँ पहाड़ नहीं हैं
इसलिए कभी-कभी
एक साथ दो-दो सीढ़ियाँ
फांद कर ऊपर चढ़ जाता है आदमी
पर तीन सीढ़ियाँ
तेरे अलावा
शायद ही कभी
कोई चढ़ पाया हो
हाँ ऐसी हनुमान कूद
सिर्फ तुम ही जानते हो।

यह सीढ़ियाँ
साँप सीढ़ी भी तो नहीं है
कि एकदम से चढ़ जाएँ
और उतर जाए कोई
उतनी ही तेजी से
लेकिन
यह सीढ़ियाँ ही
तुम्हारी बैसाखियाँ हैं
जो तुम्हें
अपनों की ही मदद
और
मजबूती से ऊपर ले जाती हैं
वहीं मुझे डंसकर
नीचे उतार देती हैं
हर बार!

मेरी कोशिशें जारी हैं लगातार
देखता हूँ
डंसोगे मुझे
तुम कब तक?