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बाला-1 / नज़ीर अकबराबादी

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अ़जब ढंग से चमकता है वह बाला उसके बाला सा।
कि हर झोंक में होता है वह बिजली का उजाला सा॥

न बाला ही फ़क़त कुछ दिल को भटकाने में डाले है।
जो देखा खूब तो बाली भी बहलगती है बाला सा॥

वह बाला सा कद उसका और वह बाला कान का यारो।
करे हैं उस परी के बाले जोबन को दोबाला सा॥

न झमकों ही की झोंकें तीर सी लगती हैं सीने में।
करनफूलों की नोंकें भी लगा जाती हैं भाला सा॥

मुझे कल इत्तफ़ाकन देख उस ऐयार ने पूछा?
कि उसकी चश्म से बहता है क्यों अश्कों का नाला सा॥

अगर चाहे कि हमको दाम में लावे तो क्या कु़दरत।
कहां हम हुस्न के शेर और कहां मकड़ी का जाला सा॥

किसी ने कह दिया उससे ”नज़ीर“ इसको ही कहते हैं।
परों पर आज परियों के हैं उसके इश्क का लाला॥

जहां गोरा बदन और चांद सा रुख़सार होता है।
तो वां यह शख़्स भी रहता है उसके गिर्द हाला सा॥

बड़े हैं खू़बरू हैं इस से डरते हैं तो तुम क्या हो।
तुम्हें तो जानता है एक हलुए के निबाला सा॥

इसे हलका न जानो तुम अजी साहब क़यामत है।
यह ठिगना सा, यह दुबला सा, यह सूखा सा यह काला सा॥

शब्दार्थ
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