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पद-रज / विमल राजस्थानी

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‘श्यामपुरी में जब-जब मोहक ‘वनमाली’ आता था
स्नेह-सलिल का सागर घर-घर में तब लहराता था
मंत्र-मुग्ध जनता हो लेती उसके पीछे-पीछे
बच्चे से लेकर बूढ़ा तक शीतलता पाता था

निर्निमेष युवतियाँ निरखतीं थीं उस ‘वनमाली’ को
लज्जा भूल, चकित नेत्रों से, बेसुध, मतवाली हो
झाँका करतीं कुछ खोयी-सी वातायन को खोले
कुछ छज्जों पर, कुछ छत ऊपर, सकुचाती-सी हौले

सबके कोमल दिल उसके प्रति थे निर्मल अनुरागी
सबके अन्तस्तल में बसा हुआ था वह वैरागी
युवक-वृन्द प्यासी आँखों से उसको निरखा करता
जी भर उसको देख-देख भी जी न किसी का भरता

दर्शनार्थ रहतीं थीं आँखें उनकी हरदम प्यासी
पाते ही उसको खिल उठते थे पुलकित पुरवासी
‘वनमाली’ भी उन्हें रुचिर उपदेश दिया करता था
अमृत-घूँट-सा जिनको जन-जन झूम पिया करता था

उसके थे उपदेश यही- ”मत मानवता को भूलो
स्वतंत्रत के झूले पर तुम स्वतंत्र होकर झूलो
रक्खो साहस इतना जी में जब चाहो नभ छू लो
क्षणिक विश्व की सुख-सामग्री पर न बावलो! फलो“

”मधुर प्रेम-तरु की शीतल छाया में जीवन बीते
कभी तुम्हारे मानस के सर हों न स्नेह से रीते
त्यागो ईर्षा-लोभ, स्वप्न में भी न क्षमा को भूलो
मेरा आशीर्वाद-फलो तुम और सदा तुम फूलो“

ऐसी ही सुखप्रद, सुन्दर सीखें देता ‘वनमाली’
स्नेह-सुधा सींचा करता सबके मन में मतवाली
मुग्ध बनी जनता उसके उपदेश हृदय में धरती
आनन्दित, उच्छ्वसित हृदय से हर्षनाद थी करती

‘वनमाली’ सबको अभिवादन कर जब वन को जाता
पुर-जन-मण्डल सीमा तक था पहुँचाने को आता
फिर अति श्रद्धा से उसकी पावन पद-रज ले-ले कर
अकुलाया-सा, खोया-सा, उन्मन वापस हो जाता