भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
नमक / वीरू सोनकर
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 08:27, 11 जून 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=वीरू सोनकर |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKav...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
किसी एक बिंदु से आरम्भ
और वहीँ समाप्त,
एक दुखद यात्रा-स्मृति की उदासियों से परे छिटक
मैं बुन रहा हूँ पुनः वही
सात महासागरों को एक छलांग में पार करता कोई दुस्साहस
कि
अनिर्णीत पहचान की कोई व्यथा मेरी नरम खाल पर नहीं होगी,
और जूतों के तल्लो में छिपा कर
नमक की वह पुड़िया मैं वापस लाऊँगा
उसी कमरे-कम-लायब्रेरी में
जहाँ दीवारो पर ऊगा है ज्वार भाटा से जूझती
और लहरो से टकराती
किसी नाव सा मुँह चिढ़ाता मेरा ही एक चित्र,
कामनाओ के असंख्य सीप जो स्वप्न में दोमुँहा सांपो में बदल जाते है
मेरे बिस्तर पर जहाँ-तहाँ बिखरे है
मेरी तकिया में सोखा हुआ वह नमक बिखरा है पृथ्वी के सभी छोरो तक
और मैं कह रहा अपने जूतों से
कि चलना है
वह पूरा नमक वापस लाने