भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
भाषा / वीरू सोनकर
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 08:35, 11 जून 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=वीरू सोनकर |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKav...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
वह जीत का स्वांग है
जब मैंने तुमसे किसी दूसरी भाषा में बात की
और जब चिंता की
तो सामने तप रही सड़क के एक हिस्से को
अपनी परछाई से सहला दिया
मैं अपना भय,
बह रही उस नदी से बताता हूँ
नदी भय पी कर
ठन्डे पत्थरो को तट पर पटक
आगे बढ़ जाती है
मैं घर लौट आता हूँ
और दीवारो के कान,
आइनों के मुँह साफ़ करता हूँ
एक्वेरियम में धैर्य उगल रहे नदी से आये
उन नवागंतुकों पत्थरो के स्वागत में
मछलियाँ,
उनका मुँह चाट रही है
असंवाद के संवाद में बदलने के उसी शोर में
फिर हमारी बहस मातृभाषा में थी!