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तथागत / स्वरांगी साने
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जितना तुम कहते गए शांत रहो
उतना कोलाहल बढ़ता गया मन में
जितनी बार तुमसे सीखा
क्रोध पर काबू पाना
उतनी बार गुस्सा उफ़नता रहा
क्षमा की सीख तुम देते रहे
हम बदला लेते रहे
ऐसा क्यों हुआ तथागत?
‘शरणं गच्छामि’
कहने के बाद भी
तुम्हारी शरण में क्यों न आ सके हम तथागत?
कुछ कहो न तथागत?