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रसराज / हरगोविन्द सिंह
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सुनकै पराई पीर गल जाय नैनूँ-घाईं
एइ आय आदमी के हिरदे की सरबस,
भुलै निजी राग-रंग, बना देत बिस्वरूप
मूल सुर तंत्रिका सें जोर देत बरबस;
छीन करै छुद्र भाब, दिब्ब छबि प्रगटाबै
बस करैं बज्रधारी बिना तीर-तरकस,
और सब रस आयँ दरबारी सहना-से
छत्रपति स्वामी एक साँचौ-सौ करुन रस।