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समाचार / संजीव ठाकुर

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दीखता है
खालीपन
मन जहां-जहां दौड़ता है
दौड़ने से
थककर
अंधेर शुष्क कोने में
एक बूंद पानी की प्यास तक
अधूरी रह जाती है,
लगता है
लतियाकर बाहर किया गया हूं।
थोबड़ा अपना सा लेकर
सूनी सड़क पर
सट्रीटलाइट की रोशनी में जोर-जोर से
भौंकने को जी चाहता है
मगर
चला जाता हूं
ढोल तक
गिरा आता हूं एक
पोस्टकार्ड-
पिताजी!
मैं कुशल से हूं।