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अंधेर / कर्मानंद आर्य

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जब अँधेरा ख़त्म हो जाएगा
तब, हमारा युग आएगा
जब भेदभाव साँसे गिन रहा होगा
ठीक उसी समय, हमारी मुक्ति की सूचना प्रसारित होगी
हजारो सूरज मर जायेंगे
तब अच्छे दिन आयेंगे
‘गबर घिचोर’ में भिखारी ठाकुर ने यही लिखा था
‘अछूत की शिकायत’ में थे
कुछ इसी तरह के भाव
‘रोहित वेमुला’ के शब्द
अभी तक गूंज रहे हैं समुद्री लहरों में
किस किस ने तो नहीं लिखा
आंकड़े बहुत बड़े हैं
और हम दीर्घजीवी
लक्ष्मनपुर बाथे की गलियों में
सुनाई देते हैं इसी तरह के शब्द
‘यह कितना बड़ा अँधेरा है’
‘यह कितनी बड़ी रात है’
‘स्याही’ के कांटे खत्म नहीं होते
चुभते हैं नुकीले फन
क्या आपने ‘सैराट’ देखी है
जिसमें ‘भाषा’ से अधिक ‘भाव’ पिटता है
दरिया की एक लहर दूसरी लहर से कहती है
किनारे लगकर हमारा यह उद्वेग भी ख़त्म हो जाएगा
आज मैले लोगों को भी
पीने का पानी उपलब्ध है
धूप और हवा पर वंचितों को मिल चुका है अधिकार
यह ‘महाड़’ से आगे का समय है
उस अँधेरे के ख़त्म होने का इन्तजार है
जो आज भी दिलों में
ओपरेशन का ख्वाब देखती है और मर जाती है