भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आदिम आकांक्षा / आभा पूर्वे

Kavita Kosh से
Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:13, 31 मार्च 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=आभा पूर्वे |अनुवादक= |संग्रह=गुलम...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जब कभी देखती हूँ
रेत पर चिकने
बालू का उभार
लगता है जैसे
किसी मुग्धा के
उन्नत उरोज।
चाहती हँू
सर रखकर
उम्र भर इसे
निहारती रहूँ ।