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बेवजह / अजित सिंह तोमर

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जिन दिनों तुमसे
बातचीत बंद थी बेवजह
उन दिनों
आसमान का रंग हो गया था सफेद
धरती हो गई थी काली
हवा का वजन कुछ ग्राम बढ़ गया था
नदी समुन्द्र तल से नीचे बह रही थी
पहाड़ अनमना हो बैठ गया था ऊकडू
जंगल हो गए थे समझदार
खरपतवार बन गए थे सलाहकार
झरने बंट गए थे हिस्सों में
पत्थरों के पास थे नसीहत के राजपत्र
उनदिनों
बादल हो गए थे चुपचाप
बूंदे बढ़ा रही थी ताप
रास्तों ने मिलकर तय कर लिए थे भरम
जिन दिनों तुमसे बातचीत बंद थी
उन दिनों
सपनों की फ़िल्म एक्स रे की माफिक
चांदनी में देखता तो
चाँद में साफ़ नजर आता था
बाल भर अविश्वास का फ्रेक्चर
तारें देते थे सांत्वना वक्त बदलनें की
उन्ही दिनों मैंने जाना
बातचीत कितनी जरूरी चीज़ थी
मेरे जीवन की
इसी बातचीत के सहारे
मैं धकेल सकता था दुःख को सैकड़ो मील दूर
स्थगित कर सकता था अवसाद का अध्यादेश
लड़ सकता था खुद से एक बेहतर युद्ध
मुक्त हो सकता था हार और जीत से
बता सकता था खुद की कमजोरियों का द्रव्यमान
उम्मीद को पी सकता था ओक भर
ताकि बचा रहे एक बेहतर कल
दरअसल
बातचीत का बेवजह बंद हो जाना
उतना अप्रत्याशित नही था
जितना अप्रत्याशित था
इस बात का इतना लम्बा खींच जाना।