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मामूलीपन / अजित सिंह तोमर

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बेहद मामूली दुनिया थी मेरी
इतनी मामूली कि
दुखी हो सकता था मै
सब्जी वाले के दो रुपए कम न करने पर

खुश हो सकता था मैं
फटी जुराब होने के बावजूद
किसी को नजर न आने पर

मैं खुद इतना मामूली था
नही जानता था घर की पिछली गली में
कोई मेरा नाम
कई कई साल टेलर नही लेता था मेरी नाप
फिर भी सही रहता उसका अनुमान

मेरी बातें इतनी मामूली थी कि
सबसे गहरा दोस्त भी जम्हाई लेने लगता
और विषय बदल कर पूछता सवाल
और बताओ क्या चल रहा है

दरअसल,
मैंने खुद को जानबूझकर मामूली नही बनाया
मैं बनता चला गया
मामूली सी जिंदगी में
एक मामूली सा इंसान
मैं जब कहता कि मै खुश हूँ
मेरा परिवेश सोचता शराब पी है आज मैंने
मैंने जब कहता कि मैं दुखी हूँ
लोगबाग इसे मेरी आदत समझ लेते

वैसे मामूली होने से
मुझे कोई ख़ास दिक्कत नही थी
बल्कि ऐसा होना मेरे काम आया अक्सर
मुझसे नही थी किसी को सिफारिश की उम्मीद
मेरी अनुपस्थिति नही थी किसी भी महफ़िल में
जिज्ञासा और कौतुहल का विषय

जब मामूली सी बातों को मै दिल से लगा बैठता
यही मामूली होना मेरी सबसे ज्यादा मदद करता
मै हँस पड़ता रोते हुए
मैं रो पड़ता हँसते हुए

इस दौर में मामूली होना आसान नही था
हर कोई वहन नही कर सकता था मामूलीपन
इसकी अपनी एक कीमत थी
जिसको चुकाने की कोई मियाद नही थी
जो इतना बोझ उठा पाता
उसी के हिस्से में आती ये मामूली जिंदगी

मेरे हिस्से से जब किस्से में आई
ये मामूली ज़िंदगी
तब ये उनके समझ में आई
जो मुझे ख़ास समझकर
काट करे थे उम्मीद से भरी जिंदगी

उनकी निराशा पर
मुझे हुई मामूली सी हताशा
यही मामूलीपन बचा ले गया मुझे
गहरे अवसाद के पलों में आत्महत्या से

मामूली होने ने जीना थोड़ा आसान किया
और मरना थोड़ा मुश्किल
मामूलीपन की यही वो खास बात है
जिसे मेरा कोई ख़ास नही जान पाया
आजतक।