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दर्शन / नवीन ठाकुर ‘संधि’
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सुन सुन, हट रे भाय हट,
खुलतै माय दुर्गा रोॅ पट।
सब्भै मिली करतै पूजा,
राजा रंक रहेॅ या कोय परजा।
कोय चढ़ाय पेड़ा लड्डू मालभोग खाजा,
पुजारी बटोही दम भर खाय छै माजा।
माय दुर्गा रोॅ भक्ति चाहोॅ तेॅ मिलथौं झटझट,
अरदशिया छै आंचरोॅ बिछाय,
कबूतर पाठा-पाठी छै चढ़ाय।
देखी दुर्गा हँसै छै खलखलाय,
योगिनी गदगद छै खून पीवी अघाय।
दुर्गा दै छै फोॅल "संधि" फटाफट,
जात-पात पेॅ देवी नै रीझै छै,
माय तेॅ भक्ति भाव केॅ बुझै छै।
माय बेटा रोॅ रिस्ता सब्भै समझै छै,
विदायी में सब्भै केॅ कनवाय मतुर, दै छै।
सब केरोॅ दिल छेकै मंदिर आरो मठ॥