ज़िन्दगी / राजेश शर्मा ‘बेक़दरा’
पलके बंद करके सोचता हूँ
जिंदगी को ढो रहा हूँ
सिर पर,
जैसे मजदूर ढोता है
सर पर
बोरा भर रेत,
दुनिया के लिए
यह रेत भर है
लेकिन मजदूर के लिए
बच्चो के खिलौने है
परिवार के लिए अन्न के टुकड़े हैं
लेकिन मैरे बच्चे के पास खिलौने
और परिवार के पेट में अन्न हैं
फिर क्यों ढो रहा हूँ
जिंदगी को रेत की तरह
और टूट रहा हूँ
मजदूर की झुकती कमर की तरह
शायद मेरे सर पर
रखे बोरेमें
उम्मीदे दबी हैं
उम्मीदों का पेड़
यूँही नहीं उग आया
कुकरमुत्ते की तरह
इसमें अनजाने में बोये गये थे
एहसास के कुछ बीज
जो किसी
शाब्दिक परिभाषाओं से
मुक्त थे
वो बीज बिखर गए
इधर उधर यूँही अचानक
वही बीज फूटने लगते है
यही बीज सबके अपने अपने होते हैं
जो मजबूर करते रहते हैं
जिंदगी को ढोने के लिए
बोरे भर रेत की तरह...