भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अगली बार / स्वाति मेलकानी
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:42, 26 अगस्त 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=स्वाति मेलकानी |अनुवादक= |संग्रह= }...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
अगली बार धरती नहीं
आकाश बनूँगी।
दूर से ही देखूँगी तुम्हें
देखूँगी कैसे ठिठुरते हो ठंड में
या गर्मी में
हाँफते से फड़कते हो।
स्वयं में पेड़ उगाकर
जो ना दूँ छांव
तो कैसे झुलसते हो
तेज दुपहरी धूप में।...
बारिशों में भीगते देखना है तुम्हें
देखूँ कैसे दिखते हो
जब छोटी-छोटी गीली बूँदें
तुम्हें छू कर नीचे गिरेंगी।
नहीं,
मैं नहीं समेटूँगी उन्हें
और न भीगने दूँगी अपना दामन
मैं तो बस देखूँगी दूर से
अहसास करूँगी
अपने अलग होने का
नहीं समाऊँगी स्वयं को तुममें
न तुम चल पाओगे
सख्त कदमों से मेरे ऊपर
और न मैं उदास होकर
तुम्हारे ठहरने की
अपेक्षा करूँगी।
अगली बार धरती नहीं
आकाश बनूँगी।