उड़ान / निरुपमा सिन्हा
जीवन के उस मोड़ पर
जब रोटियाँ होने लगती है
बिना प्रयास के गोल
सब्जियों में नमक
हाथों में ज़रूरत भर ही उठता है
सफ़ेद होते बालों को ढँक देता है
भरपूर्ण परिवार का प्यार
पूरे घर की दीवारों में
सीमेंट की जगह देखा जा सकता है
कभी न टूटने की हद तक
साफ़ साफ़ उसके नाम को,
बेटा 23 साल का
कैरियर की
पहली पायदान पर
सफलतापूर्वक कदम रखता हुआ
20 वर्षीय बेटी के नन्हें परों पर
ठहरी है
दुलार की उड़ान
पूरी की पूरी गृहस्थी
पगडंडियों से गुजरती हुई
आ चुकी थी जिंदगी के उस मुकाम पर
जहाँ बाधाएं भी किनारा कर चुकी होती है
सात वचनों का साकार रूप
जीवन का सच बन चुका होता है
तब वो 50 साल की औरत
झाड़ती है अपने खिडकियों से धूल
देखना चाहती है
उगता सूरज
आँखों में उतार लेना चाहती है उजास
फ़र्क देखना चाहती है
तपती दोपहरिया का
शाम में ढल जाना
थपथपाती है आंसुओं को
और
चाँद को आसमां से धरा पर उतारने की
सारी कोशिशें
अपने पल्लू में बाँध
निहारती है क्षितिज को
ऐसे में बेटा पकड़ाता है
हल्के पावर का चश्मा
बेटी कंधे पर झूल कर कहती है
“अम्मा ठंड लग जाएगी खिड़की बंद कर लो”
वह हौले से सहलाती है बेटी का गाल
और बेटे के हठेलियों में रख देती
चुम्बन के साथ चश्मा
गुनगुनाहट भरे स्वर में बोलती है
“खिड़कियाँ बंद नहीं करना मेरे बच्चों
ज़िंदगी की आपाधापी में
जो छूट गया उसे पकड़ना चाहती हूँ
अब अपने लिए भी
जीना चाहती हूँ”
खिड़की पर आ बैठते हैं पक्षी
वह परों को सहलाती है
उसके कानों में गूँजते हैं अपनी उड़ानों के स्वर!!