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मंतर / मथुरा प्रसाद 'नवीन'

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मन तो करऽ हे
कि मंतर पढ़ियै
लेकिन ई मंतर
कान में नै
हँका के देल जा हे
जब
भूख अउ पिआस
छटपटा हे आदमी
तब अकबका के देल जा हे
ओ देखो,
मुसहरा के बेटा के
भूत भर रहले हे
गरीब के भूख के घड़ी,
होबै लगऽ हो भुतभरी
देखला हे कभी
पैसा बाला के
पकड़ते भूत आर प्रेत?
हे काली माय!
आर कहियो केकरा?
अगर हमर बुतरूआ
ठीक हो जैतो तब
बलि देबो बकरा
पैसा के वजह
बीमार पड़ल अदमी
बकरा के जबह
गरह कटबै ले बाबा जी
मुसहरा के कर रहले हे राजी
ई कैसन चोरबजारी
गरह के फेरा में
बिक गेलै
ओकर लोटा आर थारी
इहे तरह से
गरीब के
खाल खाल रहले है
जे चतुर है
ऊ चाँदी के
चलनी चाल रहले है।