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संहार /राम शरण शर्मा 'मुंशी'

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ये खुले-अधखुले अंग
केश के पाश
सुगढ़ तन की मरोड़,

             लावण्य, लोच
             मृदु हास
             सुदृढ़ भुज वल्लरियाँ
             वर्तुलाकार,

उच्छ‍वसित
कठोर उरोजों में
ज्यों छिड़ी होड़ !

             ये अंग
             गंग की धारा में
             निरुपाय, निसत्व, अपंग

सहज
कितने जीवित शव
रहे छोड़ !