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युवा कवि / अखिलेश श्रीवास्तव

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हिंदी कविता में समकालीनता की उम्र
मुझसे एक दिन कम है।

मैं ही कविता को जन के बीच लेकर गया
बदल दिया उसे धन में
इस तरह कविता जन धन हो गई
उसमें वादे जमा हुए
और आत्महत्याओं की निकासी हुई.

पहले कविता पुस्तकालयों में कैद थी
मैंने कांधा लगाया तो
वो पूंजीवादियों के पंच लाइनों में बदल गई
मेरी मखमली कोशिश ने
सिनेमा हालो को माॅल में बदला
पंनसारी की दुकान को माॅल में बदला
यहाँ तक की स्त्रीयों को माल में बदला
मुझ पर आरोप लगे उसके पहले ही
जब काँधे पर लाश ढोते लोग गुजरे सामने से
तो मैंने ठेलों को एम्बुलेंस में बदल दिया
इस तरह विकास को गति दी।

मैं धुँर युवा हूँ
कविता में गुगली खेलता हूँ
मैं एक छोर से कविता डालता हूँ
दूसरे छोर वह लपक ली जाती है सुविधाजनक गदेलियों में
मेरी कविता लकड़ी, कुदाल, हसियाँ से टकराती नहीं है
उसमें कोई खटराग नहीं है
मैं स्केटिंग करते हुए लिख सकता हूँ कविता
पैदल घसीटते हुए जिनके तलवे फट गये
उनके लिए कोई कविता नहीं है मेरे पास।

मैं लिखता नहीं हूँ, कविता करता हूँ
सुबह प्रशंसा प्रैक्टिस करने अकादमी में घुस जाता हूँ
शाम को पुराने चुप्पा कवियों के कुछ शब्द झोले में डालता हूँ और आलोचना पर निकल पड़ता हूँ
पुरस्कारों की घोषणा वाले दुपहरियों में मैं
अपनी कविता के साथ जे एन यू में मिलूंगा
बधाई, शुभकामना का बैना बाँटने में इस कदर
व्यस्त हूँ कि मूतने तक की फुरसत नहीं
जब जंतर मंतर पर किसान मूत्र पी रहे थे
मैं उनके लिए मूत्र तक की व्यवस्था न कर सका।

मेरे लिए तालाब खरे नहीं है
नदियों के जिन्न को मैंने बोतल बंद कर दिया है
बेरोजगारी, ध्यान लगाने का समय देती है
आत्महत्या की राह ईश्वरीय पदचिन्ह है
इसी दर्शन के आख्यान पर
बिल्डरो से मिले स्मृति चिह्न में पीपल के बोन्साई को देखता हूँ
तो एक फ्लैट की जुगत में लग जाता हूँ
मिल जाएँ तो कितना आसान हो जाएँ
बुद्ध बनना।

मैं गिटार भी बजाना सीख रहा हूँ
ताकि सत्ता के सुर में सुर में मिला सकूँ
इतना चिल्लाकर पढ़ता हूँ कविता
कि कभी जयकारे का मौका मिले तो
सबसे अलग दिखूँ।