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स्वप्न / अखिलेश श्रीवास्तव

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दिन के खतरे इतने ज़्यादा हैं
सपनों ने अपने लिए रात चुनी

सपनों को रोशनी से इस कदर खतरा है कि
जिन आँखों में थोड़ी-सी भी रोशनी है
वही सबसे ज़्यादा डर है सपनों की भ्रूण हत्याओं का
कई सपनों की कब्रगाह हैं आँखें
भवें हैं या लोहे की जालियाँ लगी हैं बाँधों पर
खुलते ही कई लाशें बहकर बाहर आ जाती हैं

निर्जन में खारे पानी की नदी है
पर फैला अंधियार अनुकूलन है सपनों के लिये
एक कैक्टस पनप ही जाता है उसी क्षार में
चुभता है और सोने नहीं देता

तितलियों से बतिया लूँ उनकी भाषा में
पहाड़ों की चोटी पर पैर रख दूँ तो समतल हो जाये ज़मीन
कुरेद दूँ रेत तो मीठे पानी की सोता फूट पड़े
ये बचपन के सपनें तो दूर
फिर से बच्चा बन जाने तक का सपना भी देख लूँ तो नींद में चीख पड़ता हूँ

इस क्रूर समय में आँखें खो देने का डर
हर सपने पर भारी है
बिना नींद और सपने का एक देश
विक्षिप्तता की तैयारी है