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विषमय विरह / दरवेश भारती
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दो पलों का मधु मिलन विषमय विरह में ढल गया।
शशि उदित हो ही रहा था,
बादलों ने आन घेरा।
हा! कुँआरी रश्मियों को,
ग्रस गया निर्मम अँधेरा॥
हो गये विस्मित पथिक दो,
हो उठे अन्तर विकल-से।
बुझ गयीं मन की उमंगें,
यों कि ज्यों पावक सलिल से॥
छूट प्रेमी के करों से प्रेमिका-आँचल गया।
दो पलों का मधु मिलन विषमय विरह में ढल गया॥
आ गयी ऊषा नवीना,
छँट गये बादल गगन से।
पत्र-दल मधु लहरियों-सम,
हो उठे झंकृत पवन से॥
स्निग्ध, पुष्पित वाटिका में,
भृंग-दल के गीत पाकर॥
बन गयीं सुकुमार कलियाँ
पुष्प, नव संगीत पाकर॥
किन्तु लगते ही प्रभाकर-ताप जीवन गल गया।
दो पलों का मधु मिलन विषमय विरह में ढल गया॥