भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

संजीवनीबूटी / मनोहर अभय

Kavita Kosh से
Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:43, 18 अप्रैल 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मनोहर अभय |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKavita...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

लगता है घर के हर कौने में तुम हो
दीवार से चिपकी
दरवाजे की चौखट थामे
या खिड़की पर कुहनी टिकाए
सड़क पर आती-जाती भीड़ में
किसी पहचाने चेहरे को तलाशतीं।

तुम्हारे जाने के बाद भी
ऐसा क्यों लगता है माँ!
कि आधी रात से ही
शुरू कर देती हो रसोई में खटर-पटर
साफ करने लगती हो घड़े, बाल्टी, कलसे
नल के इंतजार में।

महसूस करता हूँ माँ!
तुम्हारी गर्म हथेलिओं का स्पर्श
जब दूखने लगता है माथा
उभर आता है दिलासा देता
तुम्हारा मुखमण्डल
अँधेरे को तीतर-बितर करते
सवेरे के सूरज की तरह।

मथानी में दही बिलोती
सुनाई पड़ती है तुम्हारी गुनगुनाहट
किसी अनसुने गीत-सी
कानों में झनझनाहट-सी भरती
रामचरित की चौपाई
गीता की सीख
या कोई ऋचा।

सच कहूँ माँ!
तुम मेरे लिए गीता का श्लोक थीं
ऋग्वेद की ऋचा
रामचरित की चौपाई
या मूर्छित सुमित्रानंदन को
जीवन देने वाली
संजीवनी बूटी।