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वर्जना / ऋषभ देव शर्मा
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सुनो !
चूंकि
वर्जित था मेरे लिए
तुम्हारे
अधरों की
माधुरी का पान
और
निषिद्ध था
परिचय के पहले पल से ही
तुम्हारे
नेत्रों के लावण्य का स्वाद,
झुँझलाकर एक दिन
अपने और तुम्हारे
इस
होने न होने की व्यर्थता पर
मैंने स्वयं को
काट खाया
दाँव लगा कर।
ऊँह,
मेरा मुँह
भर गया था
एक कसैलेपन से !
और तुम
खिलखिलाकर
हँस रहे थे !