भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बहरा / समृद्धि मनचन्दा

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 03:43, 17 सितम्बर 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=समृद्धि मनचन्दा |अनुवादक= |संग्रह...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बहत्तर गूँगी कविताएँ
मेरे कण्ठ में मकड़जाल बना
उल्टी लटकी हैं

अन्दर इतने सनाट्टे के बावजूद
मेरी भाषा का
एक-एक शब्द बड़बोला है

इतना कुछ कह सकने के बाद भी
हम समझ नहीं पाते
समझा नहीं पाते

अपनी आँखों की तोतली बोलियों से
जस-तस कर अर्थ जुगाड़ते हैं
सच ! हम बहरे हो चुके लोग चीख़ते बहुत हैं !