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स्वावलंब / महेन्द्र भटनागर
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मैं बुझते दीपक का न कभी
धूमिल नीरव उच्छ्वास बना !
जीवन के कितने ही भ्रम में,
भूला न कभी अपने क्रम में,
मैं तो अविरल बहने वाली
सरिता के उर की साँस बना !
मैं अपना ख़ुद पतवार बना,
मैं अपना ख़ुद आधार बना,
निज की निर्भरता पर रखता
अविचल जीवित विश्वास घना !
1945