भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
रात भर / मनीष मूंदड़ा
Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:38, 19 मार्च 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मनीष मूंदड़ा |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KK...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
रात भर आँखे
तुम्हारे आने की आस को
ज्योत बना
जलती रहीं
अलाव बना
मेरे सपनों की ठिठुरन को तपती रही
रात भर आँखें
तुम्हें ढूँढती रही
तुम नहीं थे,
कहीं भी नहीं
बस डर था
मेरे सपनों के अलावा
जो रात भर
दस्तक देता रहा
मुझे
रात भर
आँखें जलती रही
रात भर यूँ हीं बस
तुम्हें ढूँढती रही...