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मर्माहत है / केदारनाथ अग्रवाल
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मर्माहत है
प्रकृति
बिगड़ी राजनीति से ।
उखड़े पड़े हैं
परार्थी पेड़,
सूरज —
चान्द —
सितारों का
मुँह जोहते।
इंसान
अब फिर रोपते हैं
अपने और
दूसरों को
एक समान ।
इंसान
अब फिर खोलते हैं —
विसर्जन की जगह —
सर्जन के —
नयन
अपने और दूसरों के ।
12 सितम्बर 1978
(बान्दा में आई भयंकर बाढ़ से प्रेरित)