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हम इक भटके हुए राही को अपना रहनुमा समझे / सुरेश चन्द्र शौक़

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हम इक भटके हुए राही को अपना रहनुमा समझे

जो ख़ुद मुहताज—ए—साहिल था उसी को नाख़ुदा समझे


बहुत समझे तुझे हम ए महब्बत फिर भी क्या समझे

न तेरी इब्तिदा समझे ,न तेरी इन्तिहा समझे


मिरे नास्सेह ! अबस है बह्स मौज़ू—ए—महब्बत पर

ये अहले—दिल की बातें हैं तू इन बातों को क्या समझे


उसे समझा तो सकते हैं हम अपना मुद्दआ , लेकिन

मज़ा तो जब है वो ख़ुद ही हमारा मुद्दआ समझे


यहाँ तक बढ़ गई है बेख़ुदी जोशे—महब्बत में

हम अपने दिल की हर धड़कन को तेरी ही सदा समझे


उधर ऐ ‘शौक़’ ख़ामोशी रिज़ा का पेशख़ैमा थी

इधर अपनी ग़लतफ़हमी से हम उन को ख़फ़ा समझे.


मुह्ताज—ए—साहिल= किनारे का इच्छुक; नाख़ुदा=नाविक; नास्सेह=नसीहत करने वाला; मौज़ू—ए—महब्बत=प्यार का विषय; रिज़ा:अनुमति;पेश—ख़ैमा=भूमिका.