भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
यादें निकल के घर से न जाने किधर गईं / जहीर कुरैशी
Kavita Kosh से
द्विजेन्द्र द्विज (चर्चा) द्वारा परिवर्तित 21:51, 23 सितम्बर 2008 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna | रचनाकार=जहीर कुरैशी }} <poem> यादें निकल के घर से न जाने किधर...)
यादें निकल के घर से न जाने किधर गईं
जिस ओर भी गईं, वो हमेशा निडर गईं
‘आदम’ की दृष्टि ‘हव्वा’ से टकराई पहली बार
उस एक पल में सैंकड़ों सदियाँ गुज़र गईं
या तो समय को राह में रुकना पड़ा कहीं
या मेरी ‘रिस्टवाच’ की सुइयाँ ठहर गईं !
उस पार करने वाले के साहद्स को देखकर
नदियाँ चढ़ी हुईं थीं, अचानक उतर गईं
फूलों को अपनी सीमा में रुकना पड़ा, मगर
ये खुशबुएँ हमेशा हदें पार कर गईं